बागपत

आख़िर कहां गए ‘फैमिली संस्कार’?

सुरेंद्र मलानिया

आज के दौर में जब तकनीक ने ज़िंदगी को बेहद आसान और तेज़ बना दिया है, तब एक सवाल बड़ी शिद्दत से उठता है —
“आख़िर कहां गए फैमिली संस्कार?”
वो जो पीढ़ियों से हमारे परिवारों की पहचान हुआ करते थे

बड़ों का आदर, छोटों से स्नेह, मिलजुल कर रहना, परंपराओं का पालन, और मुश्किल वक़्त में एक-दूसरे का साथ निभाना।

  1. संस्कार: कभी जीवन का आधार थे

एक समय था जब परिवार सिर्फ़ साथ रहने वाले लोगों का समूह नहीं, बल्कि एक जीवंत आत्मा हुआ करता था।

दादा-दादी की कहानियाँ शिक्षा होती थीं,

माँ की डांट में सच्चा प्यार छिपा होता था,

और पिता की सख़्ती में भविष्य की नींव रखी जाती थी।

बच्चों को संस्कार उपदेश से नहीं, व्यवहार से सिखाए जाते थे।
संस्कारों की नींव घर के आँगन में रखी जाती थी, जहाँ हर सदस्य एक-दूसरे के सुख-दुख का हिस्सा होता था।

  1. बदलते समय के साथ संस्कार पीछे छूटे

जैसे-जैसे जीवन की रफ़्तार बढ़ी, वैसे-वैसे संवेदनाएँ कम होती गईं।
अब घर बड़े हैं, पर रिश्ते छोटे हो गए हैं।

दादी के पैर छूने की जगह अब ईमोजी वाला “Good Morning” है,

और माँ के हाथों का खाना “घर जैसा खाना” कहलाकर बाहर ऑर्डर कर दिया गया है।

त्यौहार अब सेल्फ़ी और स्टोरीज़ के लिए रह गए हैं — भावनाओं की जगह अब फिल्टर ने ले ली है।

  1. संस्कार और आधुनिकता साथ चल सकते हैं

यह धारणा गलत है कि आधुनिकता अपनाने का मतलब है कि हम अपने संस्कार छोड़ दें।
असल में, संस्कार हमें इस बदलते समय में जमीन से जोड़े रखते हैं।

अगर हम बच्चों को लैपटॉप सिखा सकते हैं,

तो हम उन्हें “थाली माँ से पहले नहीं उठानी चाहिए” भी सिखा सकते हैं।

अगर हम उन्हें कॉन्फ़िडेंस देना चाहते हैं,

तो पहले उन्हें यह बताना होगा कि “बड़ों से राय लेना कमज़ोरी नहीं, परिपक्वता होती है।

  1. संस्कार लौट सकते हैं, अगर हम चाहें

फैमिली संस्कार कहीं खो नहीं गए —
वो हमारी भागदौड़ में दब गए हैं, और हमारे स्वार्थ में गुम हो गए हैं।

ज़रूरत है तो बस —

**थोड़ा ठहरने की,

थोड़ा सुनने की,

और थोड़ा समझने की।**

हर दिन अगर हम बच्चों को दो मिनट दादी से बात करने दें,
हर हफ्ते एक बार सब साथ बैठकर खाना खाएं,
तो संस्कार फिर से लौट आएंगे — चुपचाप, मुस्कुराते हुए।

  1. संस्कारों की एक छोटी कहानी

कभी एक बच्चा अपनी दादी के साथ मंदिर जाता था। वहाँ वो देखता था कि दादी हर दिन पूजा से पहले झाड़ू लगातीं, दीपक जलातीं, और चुपचाप हाथ जोड़ लेतीं।

जब बच्चे ने पूछा —
“दादी, भगवान तो सब जगह हैं, फिर इतना सब करने की क्या ज़रूरत?”
दादी मुस्कराईं और बोलीं —
“बिलकुल हैं, पर यह सब करके हम खुद को याद दिलाते हैं कि भगवान हमारे अंदर भी हैं। और जब ये याद बनी रहे, तो इंसान कभी गलत नहीं करता। यही है संस्कार।”

निष्कर्ष

फैमिली संस्कार कोई खोई हुई चीज़ नहीं हैं।
वो हमारे भीतर हैं — हमारी यादों में, हमारे व्यवहार में, हमारे बचपन की हर सीख में।

ज़रूरत है बस उन्हें फिर से जीवन का हिस्सा बनाने की।

क्योंकि जब घर में संस्कार होते हैं —
तो लड़ाइयाँ छोटी हो जाती हैं,
पीढ़ियाँ जुड़ जाती हैं,
और मकान एक ‘घर’ से ‘परिवार’ बन जाता है।

संस्कार चलने का ढंग नहीं, जीने की शैली है।
अगर हम चाहें, तो अगली पीढ़ी को दुनिया से आगे, दिल से जुड़ना सिखा सकते हैं।

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