शादी समारोह: परंपरा, प्रदर्शन और पतन की त्रिकोणीय तस्वीर

बागपत भारत में विवाह केवल एक सामाजिक आयोजन नहीं, बल्कि एक संस्कार है—जहाँ दो आत्माएं, दो परिवार और दो संस्कृतियां मिलती हैं। लेकिन अफसोस, आज ये शुभ आयोजन शोरगुल, दिखावे और अव्यवस्था की भेंट चढ़ता जा रहा है। शादी का मंडप जहाँ अग्नि के सात फेरे लिए जाते हैं, उसी के आस-पास कहीं हर्ष फायरिंग की आवाज़ें गूंज रही होती हैं, कहीं शराब के नशे में झूमते लोग, और कहीं कूड़ेदान में पड़ी पूरी की पूरी थालियाँ—ये सब उस पवित्रता को लील जाते हैं, जिसके लिए ये आयोजन किया जाता है।
- हर्ष फायरिंग: जानलेवा जश्न हर्ष फायरिंग को लेकर समाज में एक अजीब सी स्वीकृति बन गई है, मानो यह शान का विषय हो। लेकिन ये ‘शान’ कई घरों में मातम बन चुकी है।
केस स्टडी: बागपत के पास एक गांव में बारात के स्वागत में खुशी के मारे एक रिश्तेदार ने फायर कर दिया। गोली छत से उछलकर सामने खड़ी मासूम बच्ची को लगी—माँ की गोद सूनी हो गई। दूल्हे की शादी के साथ ही पुलिस केस भी दर्ज हो गया।
असलियत क्या है?
गोली हवा में नहीं, गुरुत्वाकर्षण से नीचे ही आती है।
हर साल देश में दर्जनों लोग हर्ष फायरिंग में मारे जाते हैं या घायल होते हैं।
कानून सख्त है, पर सामाजिक मानसिकता नरम।
लाइसेंस रद्दीकरण की प्रक्रिया तेज हो।
आयोजकों को जवाबदेह बनाया जाए।
CCTV और फोटोग्राफी से सबूत एकत्र हों।
पंचायतों द्वारा ‘नो फायरिंग’ लिखित संकल्प पास हो।
- शराब की छूट: संस्कृति या कलंक? जब दुल्हन अपने ससुराल की चौखट पर कदम रखती है, उसी समय घर के आंगन में नशे में झूमते लोग आपस में गाली-गलौज कर रहे होते हैं—ये क्या कोई वैवाहिक संस्कार की गरिमा है?
महिलाओं के लिए असुरक्षित माहौल
बच्चों में गलत संस्कार
कभी-कभी दूल्हे-दुल्हन की शादी तक टूट जाती है
प्रश्न यह नहीं कि शराब पी क्यों रहे हैं, प्रश्न यह है कि खुलेआम और सामाजिक आयोजन में क्यों?
- डीजे की धमक: ध्वनि नहीं, दहशत डीजे रात 12 बजे तक बज रहा है, आसपास के गांवों में बच्चे डर के मारे रो रहे हैं, बुजुर्ग नींद की गोली खा रहे हैं। ये संगीत नहीं, असंवेदनशीलता की ध्वनि है।
कानून क्या कहता है?
रात 10 बजे के बाद कोई तेज़ ध्वनि नहीं होनी चाहिए।
55 डेसिबल से अधिक ध्वनि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
स्कूल, अस्पताल, धार्मिक स्थलों के पास डीजे पूर्ण प्रतिबंधित है।
डीजे से कई बार आपसी झगड़े हो जाते हैं।
कुछ स्थानों पर बारात की पिटाई तक हो चुकी है।
कहीं बारात बिना दुल्हन के लौटनी पड़ी है।
समस्या है ‘लापरवाह आनंद’ की—जिसे रोकने की ज़िम्मेदारी समाज और प्रशासन दोनों की है।
- भोजन की बर्बादी: अन्न देवता का अपमान शादी में 20-25 व्यंजनों की कतार लगती है, पर खाया जाता है मुश्किल से 4-5। लोग प्लेटें भरते हैं और ज़्यादा हिस्सा जूठा छोड़कर फेंक देते हैं।
FSSAI के अनुसार भारत में हर साल 6.7 करोड़ टन खाद्य सामग्री बर्बाद होती है।
शादी समारोहों में यह बर्बादी 25–30% तक हो सकती है।
‘नो वेस्ट प्लेट’ बोर्ड लगाएं।
NGO के माध्यम से बचा खाना जरूरतमंदों को वितरित हो।
आयोजकों के लिए नियम बने कि वे मेहमानों की संख्या के अनुसार भोजन बनवाएं।
- दिखावे की दौड़: शादी या समाज में प्रतिस्पर्धा? अब शादी दो आत्माओं का मिलन कम, और सोशल मीडिया इवेंट ज़्यादा बन चुकी है। 5 दिन की रील शूटिंग, 500 लोगों की भीड़, लाखों की सजावट और लाखों का लोन। फिर जब कर्ज चुकता नहीं होता, तो वही शादी संपन्नता की कब्रगाह बन जाती है।
- शादी में बजट से अधिक खर्च: बन सकता है खुशियों का दुश्मन आजकल शादी को समाज में प्रतिष्ठा का प्रतीक बना दिया गया है। लोग मानते हैं कि जितना बड़ा खर्च, उतनी बड़ी इज्जत—और इसी सोच में शादी समारोह जरूरत से ज़्यादा महंगे, भव्य और भड़कीले हो जाते हैं।
लड़की और लड़के के माता-पिता अक्सर अपनी सामर्थ्य से बाहर जाकर कर्ज ले लेते हैं।
शादी के बाद जब वह कर्ज समय से नहीं चुका पाते, तो घर में तनाव, कलह और मानसिक दबाव पैदा होता है।
कई बार इस आर्थिक तनाव का असर नवविवाहित रिश्ते पर भी पड़ता है—नतीजतन, रिश्ते में दरार या टूटन तक आ जाती है।
केस स्टडी: बागपत के पास एक गांव में लड़की के पिता ने शादी में 12 लाख रुपये का लोन लेकर एक भव्य समारोह कराया। शादी के बाद EMI चुकाना मुश्किल हो गया। बेटी ससुराल में थी और उधर मायके में रोज़ घर का खर्च चलाना भी मुश्किल होने लगा। तनाव इतना बढ़ा कि दाम्पत्य जीवन भी प्रभावित हुआ और दोनों पक्षों में दूरी आ गई।
पूर्व नियोजन: शादी की तारीख तय होते ही बजट बनाएं और उसी अनुसार व्यय करें।
RSVP अनिवार्य करें: मेहमानों की संख्या सीमित और निश्चित रखें।
सादगी को प्राथमिकता दें: समाज में बड़े आयोजन नहीं, बड़े संस्कार ज़रूरी हैं।
लोन से बचें: यदि लोन लेना ही हो तो पहले उसकी EMI चुकाने की क्षमता सुनिश्चित करें।
सरकारी सहायता योजनाओं का लाभ लें, जैसे ‘मुख्यमंत्री सामूहिक विवाह योजना’ आदि।
नया रास्ता क्या हो सकता है?
- सादगी की पहल करें: 100-150 लोगों की शादियां अधिक सार्थक और गरिमामयी हो सकती हैं। दहेज और खर्च की होड़ से बचना ज़रूरी है।
- प्रशासन की भूमिका: स्थानीय प्रशासन शादियों में गाइडलाइंस जारी करे। डीजे, शराब, हर्ष फायरिंग जैसे मामलों पर सख्त निगरानी हो।
- सामाजिक शिक्षा: स्कूलों, पंचायतों, और सोशल मीडिया पर ‘संस्कारिक शादी’ अभियान चलाया जाए।
विवाह को फिर से संस्कार बनाना होगा शादी जीवन भर की यात्रा की शुरुआत है। इसमें शांति, मर्यादा, आत्मीयता और गरिमा होनी चाहिए। गोली नहीं, गले लगना चाहिए। शराब नहीं, संस्कार बांटे जाने चाहिए। भोजन की बर्बादी नहीं, भूखों के लिए सहानुभूति होनी चाहिए।
हमें विवाह को फिर से संस्कारिक और सामाजिक जिम्मेदारी से जोड़ना होगा। तभी शादी सिर्फ दो लोगों का मिलन नहीं, पूरे समाज की उन्नति का उत्सव बन सकेगी।
लेखक: सुरेंद्र मलानिया, बागपत जब समाज अपने उत्सवों में अनुशासन और संवेदना लाता है, तभी वह सभ्यता कहलाता है।