बागपत

आख़िर किसकी नज़र लग गई सामाजिक संस्कारों को?”

सुरेंद्र मलानिया

कभी रिश्तों में श्रद्धा थी, आज शक है।
कभी विवाह एक वचन था, अब समझौता बन गया है।
कभी घर परिवार की गरिमा होती थी, अब सनसनीखेज़ खबर बन गई है।

आज हम रोज़ अख़बार उठाते हैं तो खबरें रिश्तों की हत्या से भरी मिलती हैं —

कोई सास अपने दामाद संग भाग गई,

किसी पत्नी ने प्रेमी संग मिलकर पति को मारकर ड्रम में सीमेंट से ब्लॉक कर दिया,

हापुड़ में एक महिला पुलिस तीन बच्चों की मां प्रेमी संग भागी,

राजस्थान में महिला ने पति को प्रेमी संग मिलकर बोरे में भरकर बाइक से ले जाकर फेंक दिया।

सवाल उठता है — ये सब हो क्या रहा है? और क्यों?

  1. संस्कारों का ह्रास या आधुनिकता का भ्रम?

यह कहना आसान है कि “ज़माना बदल गया है”, लेकिन असल में ज़माना नहीं, ज़मीर बदल गया है।
जिस समाज में पहले विवाह को सात जन्मों का बंधन माना जाता था, वहाँ अब संबंध इंस्टेंट कॉफी जैसे हो गए हैं —
चखो, पसंद न आए तो फेंक दो।

आधुनिकता के नाम पर आज हम खुलेपन को अपनाते जा रहे हैं, पर क्या यह ‘खुलापन’ ही हमारी बर्बादी की जड़ बनता जा रहा है?
प्रेम करना गुनाह नहीं, पर विवाह के विश्वास को तोड़ना अपराध है — भावनात्मक भी और सामाजिक भी।


  1. संस्कार और मर्यादा क्यों छूटती जा रही हैं?

मोबाइल और सोशल मीडिया ने रिश्तों को पिक्सल में बदल दिया है।
प्यार, आकर्षण, और संवाद अब चैटबॉक्स में बंद हो गए हैं।

संयम, त्याग और ज़िम्मेदारी जैसे शब्द अब ‘पुराने जमाने की बातें’ बन चुके हैं।

टीवी सीरियल और वेब सीरीज़ में अनैतिक संबंधों को ग्लैमराइज़ किया जा रहा है, जिससे युवा पीढ़ी प्रभावित हो रही है।

इसका नतीजा यह है कि लोग अपने जीवन की असल परेशानियों से भागकर झूठे प्रेम और अस्थायी आकर्षण की तरफ दौड़ रहे हैं —
और जब रिश्तों में ईमानदारी नहीं होती, तो वो टूटते ही हैं — कभी मानसिक रूप से, कभी शारीरिक रूप से, और कभी हत्या जैसे अपराधों में तब्दील होकर।


  1. क्या दोष सिर्फ औरत या मर्द का है? नहीं! दोष सोच का है।

कोई एक पक्ष कभी जिम्मेदार नहीं होता।
यह समाजिक गिरावट कुल मिलाकर हमारे सामूहिक संस्कारों की असफलता है।

माता-पिता ने बच्चों को सिर्फ़ शिक्षा दी, जीवन मूल्य नहीं दिए।

स्कूल ने डिग्री दी, चरित्र नहीं गढ़ा।

समाज ने ताने दिए, समर्थन नहीं।

जब इंसान भीतर से खाली होता है, तो रिश्ते उसके लिए सिर्फ़ ज़रूरत बन जाते हैं, न कि ज़िम्मेदारी।


  1. अब क्या किया जा सकता है?

अब भी समय है — अगर हम सच में जागना चाहें।

संस्कारों को फिर से जीवन का हिस्सा बनाना होगा।

बच्चों को रिश्तों की अहमियत बतानी होगी — प्रेम का अर्थ केवल रोमांस नहीं, सम्मान और समर्पण भी है।

सोशल मीडिया से ज़्यादा, ‘सोशल बातचीत’ ज़रूरी है।

टीवी के ‘नाटकों’ से ज़्यादा, घर में ‘संवाद’ होना चाहिए।


  1. निष्कर्ष: अगर आज नहीं चेते, तो कल रिश्ते सिर्फ न्यूज हेडलाइन होंगे

सवाल ये नहीं कि “किसकी नजर लगी”,
सवाल ये है कि “हमने खुद अपनी नज़रों से संस्कारों को ओझल क्यों होने दिया?”

रिश्ते जब त्याग, सहिष्णुता और विश्वास से बने होते हैं, तब समाज मजबूत होता है।
लेकिन जब रिश्तों में लालच, झूठ और वासना घुस जाती है, तब समाज खुद अपनी जड़ें काटने लगता है।


अभी भी समय है, लौट चलें —
संस्कारों की ओर,
रिश्तों की गरिमा की ओर,
और उस समाज की ओर, जहाँ “सास” का अर्थ “माँ समान” होता था —
ना कि “अपराध की सहयात्री।”

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